संवैधानिक उपचारों का अधिकार ( अनुच्छेद 32 )

संवैधानिक उपचारों का अधिकार ( अनुच्छेद 32 ) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत संवैधानिक उपचार का अधिकार (Right to Constitutional Remedies in Hindi) एक मूल अधिकार है जो प्रदान करता है कि व्यक्तियों को संवैधानिक रूप से संरक्षित अन्य मौलिक अधिकारों के कार्यान्वयन के लिए सर्वोच्च न्यायालय (एससी) में याचिका दायर करने का विशेषाधिकार है।

सांवैधानिक उपचारों के अधिकार को डॉ भीमराव आंबेडकर ने सविंधान की आत्मा कहा हैं।

अनुछेद-32 :

संवैधानिक उपचारों का अधिकार ( अनुच्छेद 32 ) इसके अंतर्गत मौलिक अधिकारों को परिवर्तित करने के लिए समुचित कार्यवाइओं द्वारा उच्चतम न्यायालय में आवेदन करने का अधिकार प्रदान किया गया हैं।

इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय को पांच तरह की रिट निकालने की शक्ति प्रदान की गई हैं-

  1. बन्दी प्रत्यक्षीकरण  (Habes Corpus)
  2. परमादेश (Mandamus)
  3. प्रतिषेध लेख (Prohibition)
  4. उत्प्रेषण (Certiorari)
  5. अधिकार पृच्छा लेख (Quo Warranto)

ये रिट जारी करने का अधिकार संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है जिसका अर्थ है की संसद के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय की इस शक्ति को न तो कम कर सकती और न ही इसको कम कर सकती है Ι इसलिए एक आम व्यक्ति के अधिकारों की सुरक्षा हेतु संवैधानिक उपचारों का अधिकार ( अनुच्छेद 32 ) बहुत ही महत्वपूर्ण हैं Ι

बन्दी प्रत्यक्षीकरण

  • इसका अर्थ है ” शरीर को पेश करो या प्रस्तुत किया जाये ”
  • यह उस व्यक्ति की प्रार्थना पर जारी किया जाता हैं हैं, जो यह समझता हैं कि उसे अवैध रूप से बन्दी बनाया गया हैं।
  • इसके द्वारा न्यायालय बंदीकरण करनेवाले अधिकारी को आदेश देता हैं।
  • वह बन्दी बनाये गये व्यक्ति को निश्चित स्थान और निश्चित समय के अंदर अनुपस्थित करें।
  • जिससे न्यायालय बन्दी बनाये जाने के कारणों पर विचार कर सकें।
  • यह रिट किसी व्यक्ति को बिना किसी कारण के जबरन हिरासत में रखने के खिलाफ/ विरुद्ध जारी की जाती है
  • यह रिट सार्वजनिक प्राधिकरण हो या व्यक्तिगत दोनों के खिलाफ जारी की जा सकती है
  • इसलिए संवैधानिक उपचारों का अधिकार ( अनुच्छेद 32 ) में एक प्रमुख रिट है Ι

सीमायें –  यह तब जारी नहीं की जा सकती जब किसी की गिरफ्तारी या किसी को अगर हिरासत में रखा गया है और वो कानून के अनुसार हो , और साथ ही अगर यह कार्यवाही किसी न्यायालय या विधानमंडल की अवमानना के तहत हुई हो तथा न्यायालय के आदेश से हिरासत में रखा गया हो या जो गिरफ्तारी व हिरासत न्यायालय के न्यायक्षेत्र से बहार हुई हो तब भी इस रिट को जारी नहीं किया जा सकता Ι

परमादेश

  • इसका अर्थ है ” हम आदेश देते हैं ”
  • परमादेश का लेख उस समय जारी किया जाता हैं, जब कोई पदाधिकारी अपने सार्वजानिक कर्तव्य का निर्वाह नहीं करता।
  • इस प्रकार के आज्ञापत्र के आधार पर पदाधिकारी को उसके कर्तव्य का पालन करने का आदेश जारी किया जाता हैं।
  • इसे किसी भी सार्वजनिक इकाई , निगम , अधीनस्थ न्यायालयों , प्राधिकरणों या सरकार के खिलाफ आधी को जारी किया जाता हैं जिससे उनके कार्यो के करने और उन्हें नकारने के बारे में पूछा जा सके इसलिए संवैधानिक उपचारों का अधिकार ( अनुच्छेद 32 ) में यह रिट बहुत ही महत्वपूर्ण हैं Ι

सीमायें – यह रिट न तो किसी ऐसे विभाग जो की गैर संवैधानिक हैं और न ही किसी संविदात्मक दायित्व को लागू करने के साथ साथ निजी व्यक्तियों और इकाइयों के विरुद्ध भी इसे जारी नहीं किया जा सकता , साथ ही इसे राष्ट्रपति व राज्य्पालों के साथ साथ ऊंच न्यायालय के मुख्य न्याधीश जो की न्यायिक क्षमता में कार्यरत हैं के खिलाफ भी जारी नहीं किया जा सकता Ι

प्रतिषेध-लेख
  • इसका अर्थ हैं ” रोकना ”
  • यह आज्ञापत्र सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों द्वारा निम्न न्यायालयों व अर्धन्यायिक न्यायाधिकरणों को जारी करते हुए आदेश देता हैं ताकि वे
  • ऐसे  मामले में अपने यहाँ कार्यवाही न करें जो उनके अधिकार क्षेत्र या न्यायक्षेत्र से बहार हैं।

सीमायें – यह रिट सिर्फ न्यायिक एव अर्ध न्यायिक प्राधिकरणों के विरुद्ध ही जारी की जा सकती हैं न की प्रसासनिक प्राधिकरणों , विधायी निकायों एव निजी व्यक्तियों के साथ साथ निजी निकायों के खिलाफ नहीं जारी की जा सकती Ι इसलिए यह रिट संवैधानिक उपचारों का अधिकार ( अनुच्छेद 32 ) में प्रमुख हैं Ι

उत्प्रेषण 
  • इसका शाब्दिक अर्थ हैं -\’प्रमाणित होना\’ या \’सुचना देना\’ ।
  • यह एक उच्च न्यायालय द्वारा एक निचली अदालत या अधिकरण को एक केस में उत्तरार्ध द्वारा पारित आदेश को रद करने या लंबित मामलो के स्थानांतरण के लिए जारी किया जाता हैं।
  • यह अधिकार क्षेत्र से अधिक या अधिकार क्षेत्र कि कमी के आधार पर जारी किया जाता हैं।
  • इस प्रकार, निषेद रिट कि तरह उत्प्रेषणा रिट भी एक न्यायिक रिट हैं।
  • हालाँकि, उन्हें निचली अदालत या न्यायाधिकरण के समक्ष कार्यवाही के विभिन चरणों में जारी किया जाता हैं।
  • कार्यवाही को आगे जारी रखने से रोकने के लिए अंतिम आदेश पारित करने से पहले निषेद्याज्ञा जारी करता हैं।
  • जबकि उत्प्रेषणा अंतिम आदेश पारित होने के बाद उसी को रद करने के लिए जारी किया जाता हैं। इसलिए यह रिट संवैधानिक उपचारों का अधिकार ( अनुच्छेद 32 ) में एक महत्वपूर्ण हैं Ι

निषेध कि तरह, उत्प्रेषणा केवल न्यायिक और अर्ध – न्यायिक प्राधिकरणों के खिलाप जारी किया जा सकता हैं। इसी तरह, प्रशासनिक प्राधिकरणों, विधायी निकायों और निजी व्यक्तियों या निकायों के विरुद्ध प्रमाण- पात्र भी उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए संवैधानिक उपचारों का अधिकार ( अनुच्छेद 32 ) में यह एक अहम भूमिका निभाती हैं Ι

अधिकार पृच्छा-लेख
  • इसका अर्थ हैं ” वारंट या किसी क़ानूनी प्राधिकृत के माध्यम से ”
  • जब कोई व्यक्ति ऐसे पदाधिकारी के रूप में कार्य करने लगता हैं, जिसके रूप में कार्य करने का उसे वैधानिक रूप से अधिकार नहीं हैं।
  • तो वह न्यायालय अधिकार-पृच्छा के आदेश के द्वारा उस व्यक्ति से पूछता हैं कि वह किस अधिकार से कार्य कर रहा हैं।
  • जब तक वह इस बात का संतोषजनक उत्तर नहीं देता, वह कार्य नहीं कर सकता।
  • इसके द्वारा किसी व्यक्ति जिसने लोक कार्यालय के अनाधिकार को ग्रहण कर लिया हैं उसको रोका जाता हैं Ι

सीमायें – इस रिट को किसी मंत्रित्व के कार्यालय या किसी निजी कार्यालय के लिए नहीं जारी किया जा सकता Ι इस रिट को संवैधानिक उपचारों का अधिकार ( अनुच्छेद 32 ) में महत्वपूर्ण रिट माना जाता हैं क्योंकि अन्य चार रिटो से अलग इसको किसी पीड़ित व्यक्ति द्वारा नहीं जारी किया जा सकता हैं बल्कि किसी भी इच्छुक व्यक्ति द्वारा जारी किया जा सकता हैं Ι

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